रवींद्रनाथ ठाकुर : अमृत के पथ का यात्री
न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्य
आत्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति
( ब्रह्म की कामना से ब्रह्म प्रिय नहीं होते. अपनी ही कामना से ब्रह्म प्रिय होते हैं )
वैसे मैत्रेयी के प्रश्न में भी अमृत की कामना है, अहं शब्द है. इस प्रसंग में कहा जा सकता है कि अध्यात्म शब्द अधि और आत्म के जोड़ से बना है, यानी जो आत्म पर अवलंबित हो.
रवींद्रनाथ ठाकुर की आध्यात्मिकता की चर्चा करनी हो, तो वृहदारण्यकोपनिषद के इस विमर्श पर ध्यान देना आवश्यक है. उनकी कविताओं में यह विषय शुरू से ही झांकता रहा है, सोनार तरी काव्यग्रंथ में वैष्णवकविता में वे कहते हैं : देवता को जो कुछ देता हूं, वही प्रियजन को देता हूं, प्रियजन को जो कुछ दे सकता हूं, वहीं देवता को अर्पित करता हूं. प्रेम और भक्ति का एक हो जाना – भक्ति, सूफी और बाउल की परंपरा से ही यह चला आया है. क्या रवींद्रनाथ को उसी की परिधि में पहचाना जा सकता है?
नैवेद्य काव्यग्रंथ में पहली बार उन्होंने अध्यात्म को पूरे ग्रंथ में अपना केंद्रीय विषय बनाया. इस संग्रह की कविताओं में तीन तत्व उभरकर सामने आते हैं : ईश्वर से प्रार्थना, देशभक्ति और मनुष्य की मंगल कामना. यहां हमें शताब्दी के संधिस्थल पर लिखे गए सॉनेटों में साए की तरह मंडराते युद्ध के बादल का निषेध दिखता है, पश्चिम की लोलूप सभ्यता के विपरीत भारत की परंपरा में निहित शांति के संदेश के प्रति निष्ठा दिखती है, आशा दिखती है कि वह भविष्य का रास्ता दिखाएगा. अनेक कविताओं में अपनी और राष्ट्र की दुर्बलता व उससे उबरने की जरूरत को रेखांकित किया गया है. बंगमाता से उनकी अपील है कि वह अपनी संतानों को पालतू न बना रखे, चित्त येथा भयशून्य कविता में वे सीमाओं और परिपाटियों को तोड़ने वाले एक उदात्त भारत की कल्पना करते हैं, बार-बार ईश्वर से वे प्रार्थना करते हैं कि उन्हें, उनके देश को शक्ति मिले.
एक बात इन कविताओं में शायद नहीं मिलती है. मुझे वे कांतासम्मित नहीं लगती हैं. ईश्वर को वे तुम कहकर संबोधित करते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वे सार्वजनिक मंच पर ईश्वर के सामने मांग पेश कर रहे हैं. यह वह दौर था, जब रवींद्रनाथ बंगभंग के विरुद्ध आंदोलन की पहली पांत में उतर पड़े थे, पुनरुत्थानवादी और अतिवादी रुझानों के साथ उनकी किसी हद तक निकटता भी देखने को मिली थी, लेकिन यह दौर जल्द ही खत्म होने वाला था. बंगभंग विरोधी आंदोलन समाप्त होने के बाद बंगाल में सांप्रदायिक दंगों का दौर आया, और रवींद्रनाथ ने स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक, व साथ ही, अंधराष्ट्रवादी रुझानों को ठुकराया. राष्ट्रवादी ताकतों की ओर से उन पर लगातार हमले किए गए. अपनी पुस्तक, The Swadeshi Movement in Bengal में सुमित सरकार कहते हैं : दंगों के बाद रवींद्रनाथ ने भारत की सबसे मौलिक समस्या को एक नए रूप में देखा. अब उनका आदर्श महान हिंदू अतीत की ओर लौटना नहीं रह गया था, जातिप्रथा के अंतर्गत हर समुदाय को एक कोने में स्थान देते हुए बहुलताओं को समाहित करने वाले आत्मनिर्भर समाज प्राप्त करना नहीं रह गया था. अब दीवारों को पूरी तरह से तोड़ना था, दकियानूस दीवारों को निर्णायक रूप से ठुकराते हुए व्यापक मानवतावाद के आधार पर भारत में एक महाजाति का निर्माण करना था. (पृष्ठ 85)
इस द्योतना की राजनीतिक अभिव्यक्ति हमें उनके महान उपन्यास गोरा में दिखती है. सच्चे भारत की खोज में गोरा की अक्लांत यात्रा, जहां अंत में सारे संभव उत्तर नदारद दिखते हैं, और उपन्यास के नायक को इस अनुत्तरित प्रश्न में अपनी मुक्ति दिखाई देती है : मैं कौन हूं ?
गोरा में रवींद्रनाथ को अपना प्रश्न मिल चुका होता है. अब उत्तर के लिए उनकी यात्रा शुरू होती है. और यह उत्तर आत्म अवलंबित होना है, जिसका विकास हमें उनके त्रिगीत पर्व – गीतांजलि, गीतिमाल्य और गीतालि की कविताओं में देखने को मिलती है.
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हमारा जानना दो तरह का है, ज्ञान के माध्यम से जानना और अनुभव से जानना. अनुभव शब्द के धातुगत अर्थ में अन्य-कुछ के अनुसार होना निहित है; केवल बाहर से संवाद नहीं, अपने अंदर ही एक विकास होना है. बाहर के पदार्थ से युक्त होकर किसी विशेष रंग, विशेष रस, विशेष रूप में अपने बोध को अनुभव कहते हैं.
जिसे हम साहित्य, ललितकला कहते हैं, उसका लक्ष्य इस उपलब्धि का आनंद है, जो विषय के साथ विषयी के एक हो जाने में मिलता है.
साहित्यतत्व, रवींद्रनाथ ठाकुर
शेक्सपीयर के दौर में सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना थी इंगलैंड के हाथो स्पेनिश आर्माडा की पराजय, जिसके साथ स्पेन के स्थान पर इंगलैंड एक विश्वसत्ता के रूप में उभरा. मार्के की बात है कि शेक्सपीयर की किसी भी रचना में हमें इस ऐतिहासिक घटना की झलक नहीं दिखाई देती है. साहित्य की ऐतिहासिकता सामाजिक-राजनीतिक ऐतिहासिकता की पर्यायवाची नहीं होती, हां कभी-कभी उसके समानांतर जरूर चलती है – अनेक विंदुओं पर दोनों मिलती भी हैं. रवींद्रनाथ के मूल्यांकन के संदर्भ में इस बात को याद रखना जरूरी है. उनके जीवन. उनकी रचनाओं में आत्म उपलब्थि, आत्ममंथन का ऐतिहासिक कारक अवश्य ही रहा है, यह वह दौर था, जब हिमालय और हिंद महासागर के बीच रहने वाले लोग अपनी पहचान को खोजने, उसे परिभाषित करने में लगे हुए थे. रवींद्रनाथ का आत्ममंथन इसी पृष्ठभूमि में घटित हो रहा था, लेकिन उसे केवल सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखना एक कविस्रष्टा के रूप में उनकी अद्वितीय भूमिका के साथ अन्याय होगा. इसीलिए मुझे नवजागरण के संदर्भ में, उसके दायरे में उन्हें देखने में संकोच होता है. रवींद्रनाथ सिर्फ अपने समय के कवि नहीं थे. वे समय के धरातल पर खड़े एक ऐसे कवि थे, जो समय की सीमाओं को लांघकर सर्वव्यापी का आभास, उसका स्वाद प्राप्त करने का प्रयास करता है. यह प्रयास विभिन्न मानसिकताओं को आकर्षित करता है, और वे सभी अपनी अपनी दृष्टि से उन्हें समझने, उन्हें परिभाषित करने लगते हैं. अंततः ऐसी परिभाषाएं अधूरी रह जाती हैं.
1926 में अपने मित्र व भक्त एडवार्ड थॉमसन की आलोचना से क्षुब्ध होकर रवींद्रनाथ ने विल्हेल्म रॉथेनश्टाइन को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में वे कहते हैं :
एक ईसाई मिशनरी के रूप में उनकी शिक्षा उन्हें मेरी रचनाओं में प्रवाहित कुछ विचारों को समझने में असमर्थ बना देती है – उदाहरण के लिए जीवन-देवता का विचार, दैव का सीमित पक्ष जिसका व्यक्ति जीवन में एक अद्विदीय स्थान है, उसके विपरीत जो सर्वव्यापी है. मानवजाति के ईश्वर के रूप में ईसाइयत के ईश्वर की विशेष भूमिका है – हिंदूस्तान में हम अपने नित्य ध्यान के माध्यम से उसकी परम अभिव्यक्ति के अनुभव को पाने का प्रयास करते हैं और इस तरह निकट की संकीर्णता के बंधन से अपनी आत्मा को मुक्त करते हैं...
वैसे पश्चिम के दूसरे रवींद्र भक्तों के विपरीत थॉमसन ने एक गंभीर आलोचनात्मक दृष्टि के साथ अपने प्रिय कवि को समझने की कोशिश की थी. लेकिन अपर की दृष्टि से रवींद्रनाथ का मूल्यांकन पश्चिम के दृष्टिकोण के लिए चरित्रात्मक रहा. 1913 में जब उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया, तो उनकी प्रशस्ति में नोबेल समिति ने कहा था :
He has made his poetic thought, expressed in his own English words, a part of the literature of the West.
हालांकि उसी दौर में पहले विलियम बटलर येट्स व बाद में एज़रा पाउंड के मूल्यांकन में रवींद्रनाथ की कविताओं की गहराई में पैठने की कोशिश देखी जा सकती है. लेकिन कुल मिलाकर वे प्रशस्ति की सीमाओं को लांघने में सफल नहीं रहे हैं. दूसरी समस्या यह थी कि वे दोनों पश्चिम के उत्तर रोमांटिक पर्व के बौद्धिक रुझान के कवि थे. रवींद्रनाथ की भावनात्मक आत्मीय कविता में उन्हें अपना अपर देखने को मिला, जो आकर्षित करने वाला था, लेकिन अपर अपर बना रहा. और जिन कविताओं के लिए रवींद्रनाथ आज भी जाने जाते हैं, बार-बार आविष्कृत हो रहे हैं, वे कविताएं अभी लिखी नहीं गई थीं.
प्राच्य सांस्कृतिक परंपराओं में भाषातत्व की परिधि में अपनी पहचान के निरूपण, उसे परिभाषित करने की समस्या का व्यापक विवेचन किया गया है. अंतर्निहित सत्य को प्रकट रूप में लाना – इस संदर्भ में वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने शब्द के तीन स्तरों, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी का उल्लेख किया है (बाद में जिसके साथ परा को जोड़ा गया). इसी प्रकार जर्मन दर्शनशास्त्री हाइडेगर के साथ जापानी भाषाविद प्रोफेसर तेज़ुका तोमिओ के संवाद में हमें भाषा के जापानी प्रतिशब्द के बारे में जानने को मिलता है. भाषा को जापानी में क्या कहते हैं? हाइडेगर के इस प्रश्न के जवाब में प्रोफेसर तेज़ुका कहते हैं, कोतो बा. बा का अर्थ है नव पल्लव, और कोतो का अर्थ है शांत के आह्वान से उद्भुत परम आनंद. इस आनंद का पल्लव, उसकी अभिव्यक्ति है भाषा.
लगभग सत्तर वर्ष की उम्र में अपने मित्र दर्शनशास्त्री सुरेंद्रनाथ दासगुप्त को पत्र के रूप में लिखी गई एक कविता में रवींद्रनाथ कहते हैं
चिरप्रश्नेर वेदीसम्मुखे चिरनिर्वाक रहे
विराट निरुत्तर.
ताहारि परश पाए जबे मन नम्रललाटे वहे
आपन श्रेष्ठ वर.
(चिरप्रश्न की वेदी के सम्मुख विराट निरुत्तर सदा निर्वाक रहता है. मन को जब उसका स्पर्श मिलता है, वह इस वरदान को मस्तक झुकाकर नम्रता के साथ ग्रहण करता है)
उस अनिर्वचनीय के आभास के साथ निकट की संकीर्णता के बंधन से अपनी आत्मा को मुक्त करना और भर्तृहरि द्वारा निरुपित परा व पश्यंती के सत्य को कविता की वैखरी में अभिव्यक्त करना – कवि के रूप में रवींद्रनाथ की यह साधना उनके त्रिगीत पर्व – गीतांजलि, गीतिमाल्य और गीतालि की कविताओं मे ईश्वर के साथ द्विपक्षीय संवाद के रूप में सामने आता है.
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कौन है वह अज्ञात ? जिस पथ पर वह चलना चाहता है, चलता नहीं है; जो बात वह कहना चाहता है, कहता नहीं है; सब जिससे तृप्त हो जाते हैं, वह नहीं होता है. - नैवेद्य की कविताओं में अपने एजेंडे के बारे में आश्वस्त रवींद्रनाथ उसके बाद रचित अपने काव्यग्रंथ उत्सर्ग की एक कविता में पूछते हैं. क्या वह प्रियतमा है ? ईश्वर है ? या कवि स्वयं ? इसी ग्रंथ की एक दूसरी कविता में वे कहते हैं, कस्तुरी मृग की तरह अपने ही सुगंध से मतवाला मैं वन-वन में भटकता हूं. त्रिगीत पर्व की कविताओं के आत्ममंथन से पहले आश्वस्त होने से मुक्ति एक आवश्यक शर्त थी. और तभी गीतांजलि की पहली कविता में उनका नया स्वर फूट पड़ता है, कवि कहते हैं : अपने चरणों की धूल में मेरा मस्तक नत कर दो. मेरे जीवन में अपनी इच्छा पूर्ण करो –
तोमारि इच्छा करो हे पूर्ण
आमार जीवन-माझे.
कवि की यह एक नई आत्म उपलब्धि है : अनजाना पहचाना बन जाता है, दूर निकट; विपदा में उसे रक्षा नहीं, भय से मुक्ति चाहिए – और चौथी कविता में एक समूचा नया कार्यक्रम सामने आता है... वह विकसित, निर्मल, उज्ज्वल, सुंदर, जाग्रत, उद्यत, निर्भय, मंगल, निरलस निःसंशय होना चाहता है, सबके साथ युक्त होना चाहता है, हर बंधन से मुक्त होना चाहता है, वह चाहता है कि उसके सकल कर्म में दिव्य का शांत छंद संचारित हो....
उपलब्धि का आनंद, जो विषय के साथ विषयी के एक हो जाने में मिलता है – क्या वह यहां देखने को मिलता है ? नैवेद्य की कविताओं की तरह कवि यहां विषयी नहीं विषय है, वह विषयी को संबोधित कर रहा है. लेकिन अगर वह कवि है, तो क्या विषयी नहीं है ? इस द्योतना की विडंबना से मुक्ति मिलन में है, और नैवेद्य की कविताएं अगर स्थिति के प्रतीक हैं, तो त्रिगीत पर्व में हमें एक प्रक्रिया देखने को मिलती है – मिलन की प्रक्रिया, संशय और यंत्रणा से निपटते हुए उससे उबरने की प्रक्रिया, यहां मैं है, तुम है, लेकिन मैं के अंधकार के उत्स से विच्छुरित होता है प्रकाश, और वह तुम का प्रकाश है. गीतांजलि, गीतिमाल्य और गीतालि की कविताएं इस प्रक्रिया के विवर्तन की कविताएं हैं.
तीन ग्रंथों की लगभग 400 कविताओं में व्यक्त इस प्रक्रिया को पूरी तरह से दर्शाना यहां संभव नहीं होगा, लेकिन कुछ विशिष्टताओं की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की जाएगी. इन कविताओं में हमें एक क्रमागत विकास देखने को मिलता है, लेकिन हर ऐतिहासिक विकास की तरह वह सरल नहीं है, एक पड़ाव तक पहुंचने के बाद फिर से वे पीछे मुड़कर देखते हैं, जिस संशय से मुक्ति का आनंद अभी व्यक्त हुआ था, वह फिर से लौट आता है, लेकिन बनी रहती है अपने आप को कुरेदते रहने की एक निरंतर प्रक्रिया.
इतिहासकार रणजित गुहा ने अपनी पुस्तक कविर नाम ओ सर्वनाम में मूलतः विशाल सर्वव्यापी सत्ता (महाआमि) की ओर क्षुद्र सत्ता (आमि) की यात्रा के रूप में इसकी व्याख्या की है. इस यात्रा के आरंभ में एक दूरी है, क्षुद्र सत्ता अपनी क्षुद्रता के बारे में सचेत है, आकाश में बादल छाए हुए हैं और वह एकाकी द्वार के बाहर बैठा हुआ है (गीतांजलि 16), दीप है शिखा नहीं है, विरह की अग्नि से वह उसे प्रज्वलित करना चाहता है (17), और फिर अगली ही कविता में उसे आभास मिलता है कि वह सर्वव्यापी सत्ता सावन की काली रात में सबकी नज़र चुराकर छिपे कदमों के साथ आ रहा है – आविर्भूत हो रहा है. लेकिन कुछ ही कविताओं के बाद (39) में वे कहते हैं, जो गान गाने के लिए वे आए हैं, आज भी उसे गा नहीं पाए हैं – वे सिर्फ सुर साध रहे हैं, सिर्फ गाने की चाह है...
गीतांजलि की कविताओं में ही आशा का स्वर प्रस्फुटित होने लगता है – अपने सिंहासन से तुम उतर आए हो, मेरे निर्जन घर के द्वार पर आकर ठहरे हो (56), क्या तुमने उसके पदचाप नहीं सुने, वह आता है, आता है, आता है (62), लेकिन जब भी वे दीप जलाने की कोशिश करते हैं, वह बुझ जाता है. कवि कहते हैं, मेरे जीवन में तुम्हारा आसन गहरे अंधकार में है (72).
और इस प्रक्रिया में से एक नई चेतना उभरती है, जिसकी अभिव्यक्ति गीतांजलि से पहले नहीं देखी गई थी. क्षुद्र सत्ता की सार्थकता अगर सर्वव्यापी सत्ता से मिलन में है, तो सर्वव्यापी सत्ता भी क्षुद्र सत्ता के बिना अधूरी है. त्रिभुवनेश्वर, अगर मैं न होता, तो तुम्हारा प्रेम मिथ्या होता. (121)
कवि के बारे में शायद सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक, आधुनिकता ओ रवीन्द्रनाथ में लेखक अबु सईद अय्युब कहते हैं कि खेया और बलाका के बीच 1902 से 1914 की अवधि में लिखी गई इन कविताओं में केवल मैं और तुम का संवाद दिखता है, सामाजिक सरोकार नहीं है. कम से कम गीतांजलि की तीन कविताओं के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है (108-110). पहली कविता में वे इतिहास के अनुभव पर आधारित एक उदात्त भारत की कल्पना करते हैं, उस महामानव के सागर तट पर अपने चित्त का जागरण चाहते हैं. दूसरी कविता में वे कहते हैं, तुम्हारे चरण सबसे नीचे, सर्व हारा के बीच हैं, वहां तक मेरा चित्त उतर नहीं पाता है. और तीसरी कविता में देश को चेतावनी देते हुए वे कहते हैं, सदियों से तुमने जिनका अपमान किया है, अपमान सहते हुए उन सबके बराबर होना पड़ेगा.
गीतांजलि का अंत आते आते कवि की आश्वस्तता लौट आती है. जो पूजा संपन्न नहीं हुई, वह खो नहीं गई है. जो फूल खिलने से पहले झर गया, जो नदी मरुस्थल में सूख गया, वह भी खो नहीं गया है. (147)
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यह जो अहं (आमित्व) नाम की चीज़ है, इसी के ज़रिये बाकी जगत से मैं अलग हूं... मैं ही मैं हूं, इस संक्षिप्त ज्ञान के तीक्ष्ण खड़्ग से यह कण जैसा मैं (आमि) ने बाकी ब्रह्मांण्ड को अपने आपसे सदा के लिए विच्छिन्न कर रखा है, सारी सृष्टि (निखिल चराचर) को मैं (आमि) और मैं-नहीं (आमि-ना) में बांट रखा है - कवि के इस वक्तव्य को उद्धृत करते हुए शंख घोष कहते हैं कि इस विच्छिन्नता की वेदना ही रवीन्द्रनाथ की प्रधानतम वेदना है. यह विश्वआमि, या आमि-ना अनायास ही तुम बन जाता है और उसके साथ संवाद कवि के लिए एक नांदनिक आस्वाद ले आता है. गीतांजलि की कविताएं अगर प्रस्तावना हैं, गीतालि की कविताएं मुहाने तक पहुंचना, तो गीतिमाल्य की कविताओं को किसी हद तक संक्रांति की कविताओं के रूप में देखा जा सकता है. यहां विच्छिन्नता की वेदना विशेष रूप से स्पष्ट है. पहली कविता में कवि कहते हैं, रात्रि जहां दिन के तट से आकर मिलती है, उस मुहाने के किनारे तुमसे मेरी मुलाकात हुई. हमें पता है कि पौ फटने से पहले उषा का यह मुहूर्त सबसे अंधेरा होता है. आनंद यहां पथ चाहने में ही है (7), लेकिन कांटे के जंगल में फूल खिलने के बावजूद नींद की खुमार बाकी है, आंखें अभी खुली नहीं हैं (18). जल्द ही एक नया स्वर सुनने को मिलेगा, कवि कहेगा, तुमने मुझे अशेष बनाया, ऐसी ही तुम्हारी लीला है (23).
कुछ उपचार या रूपक इन कविताओं में बार-बार आते हैं. घर और बाहर, पथ पर निकल पड़ना, घर में प्रतीक्षा और तुम का आना, रात्रि, अंधकार, और कालवैशाखी की धरती बंगाल में बार-बार तूफ़ान या झंझावात (झड़). शंख घोष झंझावात से जुड़ी तीन ग्रंथों की तीन कविताओं की एक अत्यंत रोचक तुलना प्रस्तुत करते हैं. गीतांजलि की कविता (20-आजि झड़ेर राते तोमार अभिसार) में तुम कवि के पास आ रहा है, कवि उसका बाट जोह रहा है, द्वार खोलकर बार-बार देख रहा है. गीतिमाल्य की कविता ( 67-जे राते मोर दुआरगुलि भाङलो झड़े) में झंझावात में द्वार टूट चुका है, तुम आ चुका है, कवि को पता नहीं चला. सुबह उठकर वह देखता है, उसके घर की शुन्यता में तुम खड़ा है. गीतालि की कविता (33-जेते जेते एकला पथे निबेछे मोर बाति) में तुम नहीं आता है, कवि का मैं खुद पथ पर निकल पड़ा है, झंझावात उसका साथी है. कवि विषय से विषयी बनता जा रहा है.
क्या कवि को उत्तर मिलता है ? गीतालि की कविता (65) में वे कहते हैं, मेघ ने कहा ‘चलता हूं चलता हूं‘, रात ने कहा ‘चलूं‘. सागर ने कहा, ‘तट मिल गया है, मैं अब नहीं रह गया है‘. कवि कहते हैं (99), विश्वजन के चरणों के नीचे धूल से सनी धरती स्वर्गभूमि है. सबको साथ लेकर सबके बीच तुम छिपा है, वही मेरा तुम है.
अवश्य ही इन तीन ग्रंथों की कविताएं रवीन्द्रनाथ के कवि व्यक्तित्व को समझने के लिए बीजमंत्र जैसी हैं. लेकिन इनकी आंशिक आलोचना के ज़रिये उनके कवि व्यक्तित्व को समझने का प्रयास सिर्फ अधूरा ही नहीं, दुःसाहस है. ऐसा कोई इरादा भी नहीं रहा है. गीतालि की अंतिम कविताएं जिस दौर में लिखी जा रही थीं, उसी समय बलाका की पहली कविताएं लिखी गईं. इस संग्रह की चौथी कविता में कवि कहते हैं, तुम्हारा शंख धूल में लोट रहा है, इसे कैसे सहूं. सामाजिक सरोकार लौट आता है, यह पर्व आसान नहीं है, इसका प्रस्फुटन हमें कई संग्रहों के बाद परिशेष की कविताओं में देखने को मिलता है. बलाका की 37वीं कविता में कवि पूछते हैं : मृत्यु के अंतर तक पहुंचकर अगर अमृत न मिले, दुख से जूझने के बाद भी सत्य अगर न मिले,...अपनी असह्य लज्जा में अगर अहंकार न टूटे...फिर किस आश्वासन की खातिर प्रभात के प्रकाश की ओर यात्रा होगी ? बलाका के पर्व में कवि को इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है, अमृत के पथ पर यात्रा जारी रहती है, और उनकी कविता का वह परिणत पर्व सामने आता है, जिसने बंगला व भारत के काव्य को आधुनिकता और उससे परे तक पहुंचाया है.
( प्रियंकर पालीवाल द्वारा संपादित कोलकाता की कविता पत्रिका अक्षर के जुलाई-दिसंबर अंक में प्रकाशित)